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दफ्तर

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उत्तर दक्षिण, पूरब पक्षिम,
यहाँ बोध गया, यहाँ झाँसी है,
कुछ ऐसा है दफ्तर मेरा,
कुछ ऐसे इसके वासी हैं।

एक को है लड़की न मिलती,
हांफ-हांफ दूजे का बुरा हाल,
कोई ऊंचा है जैसे खम्बा,
गुसाए होत कोई जगदम्बा।

कोई दिखती है झांसी रानी,
कोई रोज़ सुनाता नयी कहानी,
एक बनता बड़ा है हिप हॉप,
सबको लगता पर लल्लन टॉप।

किसी को भ्रमण का चढ़ा शौक,
दूजा लगा वॉस-ऐप्प, जी-टॉक,
कोई अपने पे दम्भ दिखा रहा,
कोई जीवन जीना सिखा रहा।

हर बात पे एक रोता रहता,
दूजे की हसीं ही न रूकती,
वो गोलू मोलू बच्चे जैसा,
कोई करता है पैसा पैसा।

एक है रहता हर पल सोता,
दोनों बाजू वाले दादा पोता,
कोई खम्बे से प्यार जाता रहा,
कोई मेरे दिमाग की हटा रहा।

हर एक की है अपनी ही धुन,
सब खुश, न कोई उदासी है,
कुछ ऐसा है दफ्तर मेरा,
कुछ ऐसे इसके वासी हैं।।

Written by arpitgarg

April 8, 2014 at 12:33 am

Posted in Office, Real Incidents

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