Archive for the ‘Prose’ Category
हाँ तू ही है
सपने में रात जो आती है,
हर दिन मेरी नींद चुराती है,
सताए मुझे, जाने कौन है वो,
तू ही तो है, हाँ तू ही है।
इठलाती है, शर्माती है,
औ मंद मंद मुस्काती है,
मचलाए मुझे, जाने कौन है वो,
तू ही तो है, हाँ तू ही है।
लाल गाल औ मस्त चाल,
बन्दर मन होता, डाल डाल,
बहकाए मुझे, जाने कौन है वो,
तू ही तो है, हाँ तू ही है।
लड़ती है और लड़ाती है,
पूरे घर को सर पे उठाती है,
गुस्साए मुझे, जाने कौन है वो,
तू ही तो है, हाँ तू ही है।
मेरे ख़ुशी में झूमती मस्त,
दुःख में बंधाती ठांठस है,
समझाए मुझे, जाने कौन है वो,
तू ही तो है, हाँ तू ही है।
बचपने में साथ मेरा जो दे,
सारा शहर रंगे वो संग मिल के,
साथ है जो, जाने कौन है वो,
तू ही तो है, हाँ तू ही है।
रोज के सूखे जीवन में,
धूमिल न वो हो जाये कहीं,
महसूस मुझे, जाने कौन है वो,
तू ही तो है, हाँ तू ही है।
गोलू मेरे पास है
मुझे पढ़ते वक़्त कलम से कुछ भी लिखने/बनाने की आदत है। कोई चित्र, कोई शब्द, कुछ भी। यह मेरे ख्यालों से अपने आप निकलते हैं। “मैं गोलू के पास हूँ, गोलू मेरे पास है”, एक दिन पढ़ते वक़्त मैं यह लिख बैठा किताब पे। कुछ देर के पश्चात, मेरा एक मित्र मुझसे मिलने आया और उसकी नज़र इस लाइन पे पड़ गयी। वह हंस-२ के लोटपोट हो गया।
इस किस्से को करीब १० साल हो गए, पर मेरा मित्र इसे भूल नहीं पाया। न ही उसने मुझे भूलने दिया। जबतब वह मेरी टांग खींचता रहता है, इस बात पर।
मित्रों ऐसे कितने ही किस्से हो जाते हैं जीवन में। कुछ हम संजोह पाते हैं, कुछ धुंधले हो जाते हैं। दोस्त भी ऐसे ही एक किस्से की तरह होते हैं। कुछ से हम संपर्क में रहते हैं, कुछ अतीत का हिस्सा बनकर रह जाते हैं। कितना अच्छा हो अगर हम ऐसी हर याद को अपने पास रख पाएं, जब तब अनुभव कर पाएं उस एहसास का।
एक अंग्रेजी चित्रपट में दिखाया गया था की कैसे हम अपने मष्तिष्क में अपनी हर याद को संझोह के रख सकते हैं। हम एक ऐसी दुनिया बसा सकते हैं जिसमें हमें अपने सारे मित्र, परिवार, एक साथ रहने का आभास दें। बस आँखें बंद करें और डूब जाएँ अपनी यादों के समुन्दर में।
गोलू भी वही दर्शाता है। मैं गोलू के करीब उतना ही हूँ, जितना गोलू मेरे करीब रहना चाहता है। यह एक दुराही मार्ग है। कोई याद अगर कड़वी है, तो उसे हम कहीं गहराई में दफना देते हैं। गोलू और मैं दूरी बना लेते हैं।
जिन लोगों से हम संपर्क में रहते हैं, वह लोग हमसे संपर्क में रहना चाहते हैं। वह हमारे लिए गोलू होते हैं, हम उनके लिए गोलू होते हैं। अत: मैं गोलू के पास हूँ, गोलू मेरे पास है।
हॉस्टल की यादें
सुट्टे का धुंआ, पसरा था हर ओर,
नशे की चुप्पी, न होता कोई शोर,
किस राह चलें, क्यों सोचें हम,
हॉस्टल, दोस्त, मस्ती हरदम|
ठहर जाता था वक़्त, आकर वहां,
वो धरती, आसमान, वही सारा जहाँ,
खेले कूदे, लड़े झगड़े, सब वहां,
किसने कहा जन्नत नहीं होती यहाँ|
वो किला था हमारा, हम सिपह:सलार,
सजती थी महफ़िल, लगता दरबार,
औरत जात का आना मना है इधर,
हर दीवार पर यही लिखा था उधर,
पहली बार का जश्न, जोरदार,
पहली हार का मातम, खूंखार,
किताबों की जली होली, मज़ा,
छुट्टी में घर जाना लगती थी सज़ा|
मारपीट की नौबत, कुछ कहा हो,
किसीने हॉस्टल के खिलाफ, जो,
हो जाते सब तयार, जान देने को,
जब उसकी इज्ज़त ताक पर हो|
वहीँ सब सीखा, वहीँ सब किया,
वहां नहीं रहा, तो क्या ही जिया,
हॉस्टल की ज़िन्दगी न हूँ भुला पाता,
न चाहते हुए भी ख्याल है आ जाता||
लहू का सागर बहने दे
सुबह की पहली किरन,
होती कितनी कपटी है,
सारी दुनिया की बुद्धि,
उस एक ऊँगली में लिपटी है|
एक कश लगा जोर का तू,
छल्लों को फिर उड़ते देख,
सागर की गहराई में भी,
गहराई का वो आलम कहाँ|
सिक्का जो है खोटा वो,
उठा के उसको फेंकें सब,
तुझको तो मैं तब मानूं,
उस सिक्के को चमकाए जब|
हैं दुनिया में कितने इश्वर,
राम रहीम येशु भर भर,
करेगा क्या तू इश्वर चुन,
अपना एक नया ही इश्वर बुन|
रातों को जब सन्नाटा है,
चीर उसे जो पाता है,
उसे ही पूछा जाता है,
नहीं तो दूजा खाता है|
आग को थोड़ा दे और हवा,
थोड़ा तो संयम को कम कर,
उठा हाथ में एक पत्थर,
और हो जाने दे शीशा चूर,
युग नया कभी ना आता है,
तिल तिल के बनाया जाता है,
तिल तिल के अब मरना छोड़,
हवा के रुख को अब तू मोड़|
होली रंगों से कब तक,
क्या ऐसे क्रांति आएगी?
लगा तिलक तू माथे पर,
औ लहू का सागर बहने दे||
जीवन: कठिन या आसान
कभी ऐसा महसूस हुआ है की हम अकेले नहीं है| कोई है हमारे आस पास जो हमें देख सकता है, हमें महसूस कर सकता है| कभी ऐसा नहीं लगता कि जो हमारे साथ हो रहा है वह पहले भी हो चुका है| ऐसा नहीं लगता की हमारी जिंदगी हमारी होते हुए भी हमारी नहीं| अपनी किस्मत पर हमारा कुछ अधिकार नहीं| हम अपनी मर्ज़ी से पैदा भी नहीं हो सकते| हाँ मर ज़रूर अपनी मर्ज़ी से सकते हैं, जब चाहें तब| मतलब यह हुआ की हम अपने लिए अपनी मर्ज़ी से कुछ अच्छा नहीं कर सकते| हाँ बुरा ज़रूर कर सकते हैं, जब चाहें तब|
जब भी में आइना देखता हूँ, मुझे उसके अन्दर एक दूसरी दुनिया दिखाई देती है| मैं ख़ुद को कैद पाता हूँ| पता नहीं उस दुनिया का कैदी हूँ या इस दुनिया का| वह दुनिया असली है या यह दुनिया| मैं अपना अक्स देख रहा होता हूँ या में ख़ुद किसी और का अक्स हूँ|
जब कभी रात को में डरावना सपना देखता हूँ और अचानक नींद खुल जाती है, तब भी मुझे डर क्यों लगता रहता है| अरे वह तो सपना मात्र था, डर कैसा| पर नहीं, मुझे डर लगा रहता है, जब तक कि दोबारा नींद नहीं आ जाती| तो वह डर किसका था, डरावने सपने का या डरावना सपना टूट जाने का| कहीं हमारी जिंदगी दोहरी तो नहीं| हम सपना देख रहे होते हैं या हम ख़ुद किसी और का सपना हैं|
रात को अकेले आसमान की तरफ़ देखा है कभी| मिलाईं हैं कभी आसमान की आंखों में आँखें| टिमटिमाते तारों को देखकर सोचा है कभी, की उनमे से किसी तारे के इर्द गिर्द भी कोई दुनिया होगी| जब हम तारे को देख रहे होते हैं, तब क्या पता उस तारे के किसी ग्रह से हमारा ही अक्स हमें देख रहा हो| वह भी हमारी तरह आसमान को घूर रहा हो|
कौन है वह जो ना होते हुए भी है, क्या वह ही आत्मा है| या वह जीवित है और हम एक आत्मा हैं| आख़िर क्या है सच| क्या आईने में हमारा अक्स हमसे कुछ कह चाह रहा है या वह दूसरे ग्रह वाला शायद या फिर हमारा सपना, हमें कुछ बताना चाहता हो|
जिंदगी कितनी आसान हो जाती है ना, अगर इन सब बातों के बारे में सोचो ही मत| अगर है भी कोई अकेले में, तो अब तक क्यों नहीं आया सामने| अगर अब तक नहीं आया है, तो अब क्या आएगा| आईने में कोई भी दुनिया हो, अगर वह हमें डराती है, तो तोड़ दो ऐसे आईने| मत चिंता करो, दूसरा ग्रह हमसे बहुत दूर है| कोई वहां से चिल्लाएगा भी, तब भी सुनाई नहीं देगा|
उन चीज़ों के बारे में सोचना ही क्या, जिसके बारे में हम कुछ कर ही नहीं सकते| जिंदगी को बेकार में ही, और कठिन क्यों बनाएं|
हकीकत
दिल क्यों रो रहा है, मुझे नहीं पता। पसीज उठा हूँ मैं आज, न मालूम क्या करूँ। भाग जाऊं यहाँ से या सामना करूँ। यह हकीकत है जो भयानक रूप धारण कर मेरे सामने प्रकट हुई है।
यह रेलवे स्टेशन का दृश्य है। दिसम्बर की सर्दी भरी रात है। सुबह के चार बजे हैं। मैं इंजन की तरफ पीठ करके बैठा हूँ। पीछे से काफी शोर आ रहा है। वैसे तो कड़ाके की ठंड है, पर अचानक ही मुझे गर्मी लग उठी है। एक हाफ-स्वेटर में मुझे टनों ऊन की सी तपन महसूस हो रही है।
कारण? कारण है मुझे अपने सामने दिखती दरिद्रता जो नग्न्ता पर मजबूर हो रही है। एक छोटी बच्ची फूलों की सेज पर सोने के बजाए नंगे फर्श, पर गत्ते के डिब्बे का बिस्तर बनाये सो रही है। तन पर कोई गर्म वस्त्र नहीं, ओढे हुए है तो सिर्फ मोमजामा।
उसके सामने मैं खुद को गर्म चादर ओढे पाता हूँ। जो ठंड मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रही थी, अब महसूस ही नहीं हो रही। क्या यही हक़ीक़त का असर है? क्या है उस नन्ही सी गुड़िया का भविष्य? दूसरी तरफ मैं अपने आप को देखता हूँ। हर्षोल्लास करते हुए। मजे करते हुए। यह उचित है या अनुचित, मुझे नहीं पता। पर क्या हमें अपने आप से यह सवाल नहीं करना चाहिए, ऐसा क्यों?
क्या वह बच्ची भगवान की देन नहीं? क्या हम और वो बराबर नहीं? क्या हम एक ही मालिक की औलाद नहीं? मुझे पता है कि आप में से कुछ मुझ पर हँसेंगे। सोचेंगे नहीं। क्योंकि अभी तक आपने हकीकत को देखा तो है, पहचाना नहीं।
कृपया हक़ीक़त को जानें और आगे बढ़ें ताकि इस धरती पर से दुःख और दर्द मिट जाएँ और कुछ ऐसा समां बने जो हकीकत को सुनहरा बना दे।
बकरी
एक मैला कुचैला छोटा बच्चा। उसके लिए जिंदगी का मतलब सिर्फ भूख और दुःख था। पटरी के किनारे बनी झोपडी ही उसका घर थी। लंगड़ी माँ ट्रैन मैं भीख मांगती थी। बड़ा भाई ट्रैन में झाड़ू लगाकर पैसे जुटाता था। कभी-२ दो वक़्त का खाना भी नसीब नहीं हो पाता था। इस सब दुःख दर्द में उसकी साथी थी, उसकी प्यारी बकरी। वह दिन भर उसके साथ खेला करता था। दोनों एक दूसरे को समझते थे। एक दिन खेलते-२ बकरी का पाँव पटरी पर फसी डोरी में अटक गया। उसी वक़्त सामने से ट्रैन आने लगी। बकरी चीख रही थी। बच्चे ने बकरी को देखा। वह डरा नहीं, दौड़ पड़ा। उसके मन में बस एक ही सवाल था कि आज वह यह नहीं होने देगा। वह पूरी रफ़्तार से दौड़ रहा था। लम्बी छलांग लगाकर उसने बकरी को पकड़ा और दूर झटक दिया। खुद दूसरी ओर कूद गया। कुछ ना होते हुए भी आज उसके चेहरे पर बड़ी चमक थी। आज वह विजेता था। उसने अनहोनी को टाल दिया था। वह यह दोबारा होने भी कैसे दे सकता था। उसे याद था कि कभी इस बकरी की जगह उसने अपने पिता को कटते देखा था।