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एक याद पुरानी आयी मुझे
एक याद पुरानी आयी मुझे,
एक किस्सा भूली बातों का,
जब चाँदनी छन-छन रोशन,
औ गुस्ताखी माफ़ आखों की|
नज़रों के पहरे साफ़ हुए,
चुनरी में लागे दाग हुए,
चादर का कोना ओढे वो,
संग गिनती करते पूरे सौ|
छुप छुप के मिलना सब से,
पहरों का ओझल आँखों में ,
बातें भी ख़तम ना होती थी,
रातें भी सितम न खोती थीं|
उन उलझे उलझे बालों से,
उन लाल लजाते गालों से,
खिड़की पे बैठे सवालों से,
एक याद पुरानी आयी मुझे| |

अंत करो
मैं तो आखिर एक पंछी था,
जिसके पर थे कुतर चुके,
पिंजरे को घर था मन किया,
आह की चाह की टीस जिया,
पर तू ओ जालिम आयी क्यों,
अपने संग आस ये लायी क्यों,
अब पशोपेश में उलझा मैं,
कोई आये इसको सुलझा दे,
तब तक बैठा मैं तड़प रहा,
या शुरू या इसका अंत करो|
हँसना सिखा दिया
मेरे दिल ने दर्द के साथ रहना सीख लिया था,
आँखों ने हमदर्द का खोना देख लिया था,
बातों ने खामोशी का गहना ओड लिया था,
क्यों तूने इस सोते दिल को जगा दिया,
क्यों तूने घायल अरमानों को हवा किया,
क्यों तूने आंखों को टिमटिमाना सिखा दिया,
क्यों तूने बेगाने को पशोपेश में फसा दिया|
मेरे नासूर जख्मों ने तड़पाना छोड़ दिया था,
मेरे मन ने भारी गम से समझौता किया था,
मेरे सपनों ने अपनों का खोना भांप लिया था,
मेरे रातों ने ओझिल हो जाना मान लिया था,
क्यों तेरे स्पर्श ने घायल मुझको दवा दिया,
क्यों मुझको फिर से हँसना सिखा दिया,
क्यों मेरे सपनों की महफ़िल को सजा दिया,
क्यों रातों में फिर बातें करना बता दिया||
याद
आज भी याद है मुझे वो दुपट्टा तेरा,
सुनहरा था रंग, दिल गया था मेरा,
उस पर से झबरे से तेरे बाल हाय,
क़त्ल होना ही बस बाकी था बचा|
बचपना तेरा, हर बात पे हठ करना,
जाने कब तेरी बातें अच्छी लगने लगीं,
जाने कब मुलाकातें सच्ची लगने लगीं,
क़त्ल होना ही बस बाकी था बचा|
आँखें तेरी, पल्कें झुकना औचक,
तीर सा मेरे सीने में आके लग जाना,
बिन काजल भी तू थी मृगनयनी,
क़त्ल होना ही बस बाकी था बचा|
साँसों का साँसों से टकराना उफ्फ,
याद है मुझे नशे सा, न भूल सका में.
आह और चाह का सफर दूभर,
क़त्ल होना ही बस बाकी था बचा|
छमक छमक चलना माशाअल्लाह,
और मिलना बचके नज़रों से सबकी,
वो चेहरे पे मुस्कान से आती सिलवट,
क़त्ल होना ही बस बाकी था बचा|
न जाने क्यों किस्मत रूठी सी थी,
न जाने क्यों हिम्मत छोटी सी थी,
जो हाथ छोड़ा, और तन्हाई ओड़ा,
क़त्ल होना ही बस बाकी था बचा|
धूमिल शाम वो
थकी हुई सी शाम थी वो,
जब देखा था तुझको मैंने,
पागल सी, झबराई थी,
पर मेरे मन को भाई थी।
बात बात में गुस्सा होना,
कभी पूरा, या आधा पौना,
हर लहजे में तेरे लड़ाई थी,
पर मेरे मन को भाई थी।
आँखों में डाल आँखें मैंने,
जब दिल की बात बताई थी,
तू जरा भी ना शर्मायी थी,
पर मेरे मन को भाई थी।
पागलपन औ सनकपन में,
अपनी ही लत, अपनी ही हट.
दिमाग की तूने हटाई थी,
पर मेरे मन को भाई थी।
रोते रोते, हँसते हँसते,
आस पास, कभी दूर-दूर,
परेड मेरी करवाई थी,
पर मेरे मन को भाई थी।
हाँ ना में औ ना हाँ में,
कभी सुलझन, कभी उलझन,
सांसें मेरी अँटकायी थी,
पर मेरे मन को भाई थी।
राह कठिन, चाह अडिग,
कट ही गया, काफी रस्ता,
भूला ना धूमिल शाम वो मैं,
जब मेरे मन को भाई थी।।
एक सौ सोलह चाँद की रातें
पागलपन सी करती बातें,
आँखें तेरी जैसे झिलमिल,
एक सौ सोलह चाँद की रातें,
एक ये तेरे काँधे का तिल।
पल दो पल की थी मुलाकातें,
उतने में ले गयी मेरा दिल,
एक सौ सोलह चाँद की रातें,
एक ये तेरे काँधे का तिल।
गुस्सा जो तू हो जाती है,
होता मन मेरा तिलमिल,
एक सौ सोलह चाँद की रातें,
एक ये तेरे काँधे का तिल।
दूरी तुझसे बहुत है चुभती,
मरता हूँ मैं जैसे तिलतिल,
एक सौ सोलह चाँद की रातें,
एक ये तेरे काँधे का तिल।
होती तुझसे २-४ जो बातें,
हँस देता मैं एकदम खिलखिल,
एक सौ सोलह चाँद की रातें,
एक ये तेरे काँधे का तिल।
तू ही सुबह है तू ही शाम,
जीवन तुझसे गया है सिल,
एक सौ सोलह चाँद की रातें,
एक ये तेरे काँधे का तिल।
रात दिन ख्याल तेरा बस,
आरम्भ है तू, तू ही मंजिल,
एक सौ सोलह चाँद की रातें,
एक ये तेरे काँधे का तिल।।
माशाअल्ला
नयनों में सुरमा लगाए जब,
तीर सा कुछ चल जाता है,
बढ़ती है धड़कन दिल की,
तू लगती है माशाअल्ला।
लाली ओठों की कुछ ऐसी,
मादक मंद मुस्काती है,
सांस मेरी थम जाती है,
तू लगती है माशाअल्ला।
हिरनी जैसी चाल तेरी जो,
करती मौसम अस्त व्यस्त,
मैं भँवरा बन मंडराता हूँ,
तू लगती है माशाअल्ला।
काले घने जब केश तेरे,
बन बादल घिर आते हैं,
लगता जैसे सावन आया,
तू लगती है माशाअल्ला।
माथे मुख पे श्रृंगार तेरा,
आभा एक झलकती है,
हो मंत्रमुग्ध मैं बस देखूं,
तू लगती है माशाअल्ला।
हाथ में जो कंगन डाले,
खन-खन खनक जाते हैं,
अंतर्मन मधुर ध्वनी चहके,
तू लगती है माशाअल्ला।
सौंदर्य से भी कुछ ज्यादा,
है मन में मेरे अक्स तेरा,
बंद आँखों से दिख जाता है,
तू लगती है माशाअल्ला।।
कोई आस है वापस आने की
एक दर्द दबाए बैठा हूँ,
सीने में चुभन सी होती है,
दूर तेरे चले जाने की,
कोई आस है वापस आने की?
एक तूफ़ान समाये बैठा हूँ,
मन में उफ़न सी होती है,
श्रृंगार की बेला जाने की,
कोई आस है वापस आने की?
एक राज छुपाए बैठा हूँ,
ओठों पे कशिश सी होती है,
क्षितिज पार न देख पाने की,
कोई आस है वापस आने की?
एक आह समेटे बैठा हूँ,
आँखों में टीस सी होती है,
झर-झर मोती बह जाने की,
कोई आस है वापस आने की?
एक स्वप्न संजोए बैठा हूँ,
रातों को करवटें होती हैं,
नींद मेरी खुल जाने की,
कोई आस है वापस आने की?
एक आग लगाए बैठा हूँ,
हर अंग तपन सी होती है,
भस्म इसमें हो जाने की,
कोई आस है वापस आने की?
एक सांस को थामे बैठा हूँ,
भीतर से घुटन सी होती है,
ईश्वर से जा मिल जाने की,
कोई आस है वापस आने की?
हाँ तू ही है
सपने में रात जो आती है,
हर दिन मेरी नींद चुराती है,
सताए मुझे, जाने कौन है वो,
तू ही तो है, हाँ तू ही है।
इठलाती है, शर्माती है,
औ मंद मंद मुस्काती है,
मचलाए मुझे, जाने कौन है वो,
तू ही तो है, हाँ तू ही है।
लाल गाल औ मस्त चाल,
बन्दर मन होता, डाल डाल,
बहकाए मुझे, जाने कौन है वो,
तू ही तो है, हाँ तू ही है।
लड़ती है और लड़ाती है,
पूरे घर को सर पे उठाती है,
गुस्साए मुझे, जाने कौन है वो,
तू ही तो है, हाँ तू ही है।
मेरे ख़ुशी में झूमती मस्त,
दुःख में बंधाती ठांठस है,
समझाए मुझे, जाने कौन है वो,
तू ही तो है, हाँ तू ही है।
बचपने में साथ मेरा जो दे,
सारा शहर रंगे वो संग मिल के,
साथ है जो, जाने कौन है वो,
तू ही तो है, हाँ तू ही है।
रोज के सूखे जीवन में,
धूमिल न वो हो जाये कहीं,
महसूस मुझे, जाने कौन है वो,
तू ही तो है, हाँ तू ही है।
नींद ना आई सारी रात
दीदारे यार कुछ ऐसा हुआ,
फ़िज़ा में छायी कुछ ऐसी बात,
औ चाँद की चांदनी अजीब,
मुझे नींद ना आई सारी रात।
छन छन के रौशनी जो आई,
तेरे मुख को छूकर जाने को,
हिमाकत ये न करी मैंने रास,
मुझे नींद ना आई सारी रात।
भौंरा तभी देखा खिड़की पे,
चीरता हुआ रात का सन्नाटा,
किया रवाना समझाकर उसे,
मुझे नींद ना आई सारी रात।
बिजली चली गयी, हवा बंद,
तेरे माथे पे पसीना आ बैठा,
सिरहाने तेरे करता रहा हवा,
मुझे नींद ना आई सारी रात।
कोशिश सोने की कई बार करी,
पर तुझसे नज़र न मेरी हटी,
देखता रहा तुझे, थाम तेरा हाथ,
मुझे नींद ना आई सारी रात||