ArpitGarg's Weblog

An opinion of the world around me

Posts Tagged ‘child

Strange Day Indeed

with 4 comments

Sun was shining too bright,
Silence seemed too tight,
Fluffy clouds looked too light,
It was a strange day indeed.

Something seemed amiss, true,
This long, grass has never grew,
Ships were still, and no crew,
It was a strange day indeed.

The pace of wind horrified,
An abandoned child cried,
Couldn’t find a human, tried,
It was a strange day indeed.

Lot of feelings, inside,
More of seek and less of hide,
Lion and deer drinking side by side,
It was a strange day indeed.

I was walking on the cloud,
Did lot of things, not proud,
Tried shouting, couldn’t be loud,
It was a strange day indeed.

Everywhere I saw just one face,
More curious than Button, my case,
Time to slow down, what rat race,
It was a strange day indeed.

Written by arpitgarg

October 31, 2011 at 8:06 pm

Posted in Literary, Personal

Tagged with , , , , , , , ,

फिर वो पुरानी याद आई

leave a comment »

क्यों रह रह कर आते सपने,
उन पीर परायी रातों के,
क्यों होती है दिल में हलचल,
उन नई पुरानी बातों से,
क्यों जहन में अटकी हैं यादें,
जब गलियों की कच्ची सड़कें,
सावन में पक्की लगती थीं,
जब टूटी सायिकल की गद्दी,
मोटर से मुलायम लगती थी,
जब आंच पे पकती रोटी भी,
जायके में अव्वल लगती थी,
क्या दौर था वो, कुछ और था वो,
सुख चैन का बस सिरमौर था जो,

वो समां पुराना चला गया,
कुछ और देर तक रहता फिर,
मिल बैठ के बातें करते हम,
कोई रीत पुरानी गाता में,
कुछ गम मिल जुलकर करते कम|

मैदान में वो गिरना पड़ना,
हर बात पे बालक हठ करना,
जो हवा बनाई डींगे हांक,
सब अव्वल बैटिंग देते थे,
जो आड़े आया कोई सो,
अपने सुदबुध में ऐंठे थे,
जो पेड़ सुनहरा गुलमोहरी,
दिनभर हरिया बरसाता था,
वोह बेल हवा में टूट टूट,
और नीम का मस्ती लहराना,
क्या दौर था वो, कुछ और था वो,
सुख चैन का बस सिरमौर था जो,

वो समां पुराना चला गया,
कुछ और देर तक रहता फिर,
मिल बैठ के बातें करते हम,
कोई रीत पुरानी गाता में,
कुछ गम मिल जुलकर करते कम|

शादी का मौसम सुनते ही,
मुहँ में पानी का आ जाना,
ख्वाब में भी खुरचन लड्डू की,
आपस में कुश्ती करवाना,
और कचौड़ी पूड़ी  से,
घी का टप टप रिसते जाना,
और नहीं, बस और नहीं,
एक और तो लो, तुम्हें मेरी कसम,
भाभी देवर का टकराना,
क्या दौर था वो, कुछ और था वो,
सुख चैन का बस सिरमौर था जो,

वो समां पुराना चला गया,
कुछ और देर तक रहता फिर,
मिल बैठ के बातें करते हम,
कोई रीत पुरानी गाता में,
कुछ गम मिल जुलकर करते कम|

बीमार था जब, सब याद है अब,
दादी ने नजर उतारी थी,
अलाएँ बालाएं सब टल जाएँ,
इस बात की दुआ पुकारी थी,
दीवाली में पूरे कुनबे का,
मिल जुलकर बाड़ा चमकाना,
कुछ दीपक से, कुछ बत्ती से,
सब ओर प्रकाश का टिम टाना,
सब बच्चों को नगदी मिलना,
बड़ों का आशीर्वाद कहलाता था,
एक सुई, एक धागे में,
सारा संसार पिर जाता था,
क्या दौर था वो, कुछ और था वो,
सुख चैन का बस सिरमौर था जो,

वो समां पुराना चला गया,
कुछ और देर तक रहता फिर,
मिल बैठ के बातें करते हम,
कोई रीत पुरानी गाता में,
कुछ गम मिल जुलकर करते कम|

हो गई पुरानी सब बातें,
यादें भी धुंधली हो हैं चली,
पर मन जाने क्यों अटका है,
कभी ना जाना, उसी गली,
कभी कभी एक आस जगे,
क्यों ना कल जब सो के उठें,
तो सुबह उन्हीं गलियों में हो,
रात उन्हीं अठखलियों से हो,
पर बीत चुका कब आया है,
बीते की याद ही आई है,
क्या दौर था वो, कुछ और था वो,
सुख चैन का बस सिरमौर था जो,

वो समां पुराना चला गया,
कुछ और देर तक रहता फिर,
मिल बैठ के बातें करते हम,
कोई रीत पुरानी गाता में,
कुछ गम मिल जुलकर करते कम|

Written by arpitgarg

February 20, 2009 at 7:57 am

Munna ki Shaadi

with 3 comments

Everyone has some childhood memory which tend to bring smiles. For me it would be “childhood rhymes”. One which I sang the most, enjoyed the most is the, “Munna ki Shaadi”. Try singing it fast, would enjoy better. Also if you can couple it with claps, pleasure would be supreme.

Written by arpitgarg

September 24, 2008 at 2:31 pm

सायोनारा: अलविदा सैंट पीटर्स

with 7 comments

My farewell speech 12 Std, St. Peters College Agra, 2003.

कुछ बीती बातों का छोड़ रहा हूँ फव्वारा,
सायोनारा|
दिल कि डायरी का है यह सार सारा,
सायोनारा|
इस कविता में अपनी पहचान ख़ुद से है करारा यह बेचारा,
सायोनारा|
सुबह घंटी बजने के ५ मिनट बाद नियमपूर्वक क्लास में है आरा,
सायोनारा|
बिना पास के साइकिल स्टैंड वाले को दस रुपये का किया इशारा,
सायोनारा|
बिन पॉलिश के जूतों और लंबे बालों को लिए क्लास में है घुसा जारा,
सायोनारा|
डायरी न लाने पर एक दोस्त के कवर व बाकी से पन्ने लेकर असेम्बली में जाने की जुगाड़ है बिठारा,
सायोनारा|
एडवर्ड सर की नजरों से बचने के लिए गंदे जूते पैंट से है घिसे जारा,
सायोनारा|
छोटे कद का होकर भी असेम्बली की लाइन में सबसे पीछे है लगा जारा,
सायोनारा|
प्रयेर के टाइम पे गर्लफ्रैंड के किस्से है सुनारा,
सायोनारा|
नेशनल ऐनथम के दौरान अटेंशन में नहीं खड़ा हुआ जारा,
सायोनारा|
‘गुड मोर्निंग टीचर’ को के.एल. सहगल के गीत की तरह है सुनारा,
सायोनारा|
पहले ही पिरिएड में टिफिन का लिया चटकारा,
सायोनारा|
चुपके से दूसरे कि बोतल से पानी है पिया जारा,
सायोनारा|
लीव ऐप्लीकेशन न लाने पर जल्दी से मम्मी-पापा का साइन है किया जारा,
सायोनारा|
बिना सिलेबस कि किताबों के भी नोविल्स के बोझ से बैग है फटा जारा,
सायोनारा|
बोरिंग लेक्चर के बीच नींद में डूबा जारा और पकड़े जाने पर घिसा पिटा राग सुनारा,
सायोनारा|
मॉरल साइंस के पिरिएड में फादर के संग ठहाके है लगारा,
सायोनारा|
इंगलिश के पिरिएड में में मैथ का काम है किया जारा,
सायोनारा|
मैथ का पिरिएड आने पर सिस्टर ऑफिस भागा जारा,
सायोनारा|
एग्जाम से पहले बैठकर महनत से फर्रे है बनारा,
सायोनारा|
टीचर के सिर को एरोप्लेन की लैंडिंग प्लेस है बनारा,
सायोनारा|
चुन-चुन कर दूसरों पे रबड़ में फंसाकर बुलेट है बर्सारा,
सायोनारा|
पंखे, ट्यूबलाईट और, बल्ब को चॉक का निशाना है बनारा,
सायोनारा|
तबियत ख़राब होने का बहाना बनाकर घर को भगा जारा,
सायोनारा|
फ़ुटबाल मैच में सामने वाले को धक्का देकर गिरारा और ख़ुद गिरने पर बाहर मिलने का न्योता देकर आरा,
सायोनारा|
जूनियर साइड में नल की लाइन पर जाकर छोटे बच्चों को है हड़कारा,
सायोनारा|
इंटरवल की घंटी बजने पर खिड़की से है कूदा जारा,
सायोनारा|
कैंटीन में ५ रुपये में दो पैटी लेकर अपनी बुद्धि को है इतरारा,
सायोनारा|
औरों की बर्थडे की ट्रीट खाकर अपनी बर्थडे के दिन स्कूल में न दिया नज़ारा,
सायोनारा|
एब्सेंट होने पर रोज नया बहाना बनरा,
सायोनारा|
कैंटीन की भीड़ में अपनी शक्ति का पूरा जोर दिखारा,
सायोनारा|
दूसरे के बर्गर के चिथड़े कर फूले नहीं समारा,
सायोनारा|
दो दोस्तों के बीच डब्लू.डब्लू.एफ करवाकर मंद-मंद मुस्करारा,
सायोनारा|
क्लास से बंक मारकर पूरे स्कूल में गश्त है लगारा,
सायोनारा|
पीछे बैठकर दोस्तों से गप्पें है लडारा,
सायोनारा|
एग्जाम में आगे वाले को आन्सर बताने के लिए पटारा और न बताने पर उसे भूखे शेर कि तरह है घूरे जारा,
सायोनारा|
केमिस्ट्री लैब में नाइट्रिक एसिड से घर की टकसाल के सारे सिक्के है चमकारा,
सायोनारा|
विभिन्न रसायनों को मिला सतरंगी चित्र है बनारा,
सायोनारा|
५ टी.टी  और दो बीकर तोड़ने की गाथा गर्व से पूरी क्लास को है सुनारा,
सायोनारा|
फिजिक्स लैब में मरकरी कि गोलियाँ है बनरा,
सायोनारा|
वहाँ के इन्सटरूमंट्स तोड़कर, उनके पहले से टूटे होने कि ख़बर सच्चाई से टीचर को है सुनारा,
सायोनारा|
प्रोजक्ट टाइप करने के बहाने पूरा दिन कमप्यूटर लैब में ऐ.सी. के मजे है उड़ारा,
सायोनारा|
मक्खन लगाकर सब टीचर्स का बनना चाह रहा दुलारा और दूसरों के मक्खन लगाने को सहन नहीं कर पारा,
सायोनारा|
स्पोर्ट्स डे की शाम कॉरिडोर में बम्ब है छुड़ारा,
सायोनारा|
और भड़ाम की आवाज आने पर सीना फूलकर दुगना हुआ जारा,
सायोनारा|
एग्जाम टाइम में सब टीचर्स के पैर छूकर जारा,
सायोनारा|
सेकंड क्लास की सीड़ियों से  “ग्रेट वाल पार आफ चाइना” के उस पार है झाँका जारा,
सायोनारा|
स्कूल के अन्दर आने के रास्ते में बड़ा गेट आते ही स्पीड धीमी कर मुंडी है घुमारा,
सायोनारा|
कम्बाइंड स्कूल सैलिब्रैशन के लिए १५ अगस्त का इंतज़ार है किया जारा,
सायोनारा|
इन सब को याद कर बड़ी मुश्किल से हूँ में अश्रुधारा को रोक पारा,
सायोनारा|
सैंट पीटर्स के गलियारों में दिल मेरा हारा,
सायोनारा|
यहाँ है सब टीचर्स का स्नेह और फादर मैथ्यू का प्यार बहुत सारा,
सायोनारा|
यहाँ है मानवता का फव्वारा,
सायोनारा|
यह है मार्गदर्शक हमारा,
सायोनारा|
येह है प्यार का गुलिस्तां हमारा,
सायोनारा|
आज इन सब चीजों को कर रहा हूँ में सायोनारा
सायोनारा, सायोनारा, सायोनारा…
…अलविदा सैंट पीटर्स…

हकीकत

leave a comment »

दिल क्यों रो रहा है, मुझे नहीं पता। पसीज उठा हूँ मैं आज, न मालूम क्या करूँ। भाग जाऊं यहाँ से या सामना करूँ। यह हकीकत है जो भयानक रूप धारण कर मेरे सामने प्रकट हुई है।

यह रेलवे स्टेशन का दृश्य है। दिसम्बर की सर्दी भरी रात है। सुबह के चार बजे हैं। मैं इंजन की तरफ पीठ करके बैठा हूँ। पीछे से काफी शोर आ रहा है। वैसे तो कड़ाके की ठंड है, पर अचानक ही मुझे गर्मी लग उठी है। एक हाफ-स्वेटर में मुझे टनों ऊन की सी तपन महसूस हो रही है।

कारण? कारण है मुझे अपने सामने दिखती दरिद्रता जो नग्न्ता पर मजबूर हो रही है। एक छोटी बच्ची फूलों की सेज पर सोने के बजाए नंगे फर्श, पर गत्ते के डिब्बे का बिस्तर बनाये सो रही है। तन पर कोई गर्म वस्त्र नहीं, ओढे हुए है तो सिर्फ मोमजामा।

उसके सामने मैं खुद को गर्म चादर ओढे पाता हूँ। जो ठंड मुझसे बर्दाश्त नहीं हो रही थी, अब महसूस ही नहीं हो रही। क्या यही हक़ीक़त का असर है? क्या है उस नन्ही सी गुड़िया का भविष्य? दूसरी तरफ मैं अपने आप को देखता हूँ। हर्षोल्लास करते हुए। मजे करते हुए। यह उचित है या अनुचित, मुझे नहीं पता। पर क्या हमें अपने आप से यह सवाल नहीं करना चाहिए, ऐसा क्यों?

क्या वह बच्ची भगवान की देन नहीं? क्या हम और वो बराबर नहीं? क्या हम एक ही मालिक की औलाद नहीं? मुझे पता है कि आप में से कुछ मुझ पर हँसेंगे। सोचेंगे नहीं। क्योंकि अभी तक आपने हकीकत को देखा तो है, पहचाना नहीं।

कृपया हक़ीक़त को जानें और आगे बढ़ें ताकि इस धरती पर से दुःख और दर्द मिट जाएँ और कुछ ऐसा समां बने जो हकीकत को सुनहरा बना दे।

Written by arpitgarg

March 28, 2008 at 11:28 am

बकरी

with 2 comments

एक मैला कुचैला छोटा बच्चा। उसके लिए जिंदगी का मतलब सिर्फ भूख और दुःख था। पटरी के किनारे बनी झोपडी ही उसका घर थी। लंगड़ी माँ ट्रैन मैं भीख मांगती थी। बड़ा भाई ट्रैन में झाड़ू लगाकर पैसे जुटाता था। कभी-२ दो वक़्त का खाना भी नसीब नहीं हो पाता था। इस सब दुःख दर्द में उसकी साथी थी, उसकी प्यारी बकरी। वह दिन भर उसके साथ खेला करता था। दोनों एक दूसरे को समझते थे। एक दिन खेलते-२ बकरी का पाँव पटरी पर फसी डोरी में अटक गया। उसी वक़्त सामने से ट्रैन आने लगी। बकरी चीख रही थी। बच्चे ने बकरी को देखा। वह डरा नहीं, दौड़ पड़ा। उसके मन में बस एक ही सवाल था कि आज वह यह नहीं होने देगा। वह पूरी रफ़्तार से दौड़ रहा था। लम्बी छलांग लगाकर उसने बकरी को पकड़ा और दूर झटक दिया। खुद दूसरी ओर कूद गया। कुछ ना होते हुए भी आज उसके चेहरे पर बड़ी चमक थी। आज वह विजेता था। उसने अनहोनी को टाल दिया था। वह यह दोबारा होने भी कैसे दे सकता था। उसे याद था कि कभी इस बकरी की जगह उसने अपने पिता को कटते देखा था।

Written by arpitgarg

March 28, 2008 at 11:27 am

इस शाम की सुबह नहीं

leave a comment »

जाने कितने बसंत भये,
कितने जुग पहले बे थे गए,
अब तो अश्रु भी सूख गए,
सुहाने दिन भी अलोप हुए।

मेरे यौवन का रस था पीया,
रब ने दोनों को एक किया,
एक रात का था वो मस्त मिलन,
बिछड़े आज मोसे मोरे सजन।

फ़ौज से संदेसा आया था,
धरती माता ने बुलाया था,
गोरी को बचन दे कि लौटूंगा कल,
सुख चैन ले गया वो हर पल।

माटी के लिए उसने प्राण दिए,
अपने ही आंसू सांवरी ने पिये,
एक घोर अँधेरी रात हुई,
सूरज को जैसे ग्रहण लगा।

हर आहट पर, हर चौखट पर,
बस एक सवाल ही पूछे वो,
कि कौनसी गलती मोसे भई,
जो बिरह में मैं तड़प रही।

एकटकी लगाये चौखट पर देख रही उस पार,
कि आ जाएँ शायद मोरे सरकार,
छोड़ दे आस ओ पगली,
इस शाम की कोई सुबह नहीं।

अरे उधर यह क्या था हुआ,
यह किसको गरम कढ़ाई में डुबोकर के मार दिया,
कौन थी वो जिसके मुहं में,
एक चावल के दाने ने,
विष का सा था उत्पात किया।

हाय रे जन्म दाता,
क्यों तू ये नहीं समझ पाता,
कि देवी का रूप था वो जिसका,
अभी तूने संहार किया।

माँ के गर्भ से पूछे कन्या,
कि क्या मैं जन्म ले पाऊँगी,
गर जन्म भी मुझको दे दिया,
क्या मैं जीवित रह पाऊँगी,
गर जीवित जो मैं रह गयी,
अपने हक़ को क्या पा पाऊँगी।

इन मर्म स्पर्शी सवालों का,
मेरे पास कोई जवाब नहीं,
पर कोई तो हो कि जिसको,
इनके उत्तर मालूम सही।

क्या कन्या होना पाप है,
या यह कोई अभिशाप है,
अरे यही तो जननी है,
यह जीवन देने वाली है,
इसी के रूप में सीता है,
इसी के रूप में काली है।

ओ नीचे करम करने वालों,
मानवता को डसने वालों,
क्या कभी तुमने यह सोचा है,
जिस माँ ने तुमको जन्म दिया,
उस माँ में भी तो सीता है।

वह माँ भी तो एक कन्या थी,
गर उसका जन्म नहीं होता,
तो तेरी क्या होती पहचान,
मत दिखा तू अपनी झूठी शान।

उत्तराधिकारी के लोभ में,
मत हो जा तू इतना अँधा,
छोड़ दे ये गोरखधंधा,
लेने दे मुझको भी सांस,
बस यही लगाये है वो आस,
आस छोड़ दे ओ नादान,
इस शाम की कोई सुबह नहीं।

कौन हैं वो बुड्ढे बुढ़िया,
जो चौखट पर ही बैठे हैं,
जिस तक़दीर पर था इनको गर्व,
उसी तक़दीर से चैंटे हैं।

कोई नहीं है इनके पास,
जिंदा हैं बस ले लेकर सांस,
बुढ़िया चूल्हा जलाती है,
बुड्ढा खांसे जाता है।

जिसे लाड प्यार से बड़ा किया,
जिसपर जीवन न्योछार दिया,
वो लाल ही अपना नहीं हुआ,
तो परायों की क्या बात करें।

शादी नहीं वो बर्बादी लगी,
जिस माँ से पहले कोई नहीं,
वो बीवी के बाद आने लगी।

माँ बाप का प्यार न रोक सका,
उसको खर्चे बढ़ते दिखने लगे,
बुड्ढे के पान अखरने लगे,
कलह के फल दिखे पके पके।

जिसकी लोरी में सोया था,
उस माँ की खांसी खटकती है,
जिसके कंधो पर बैठा था,
उसका बोझ आज भारी है।

जिसकी ऊँगली से चला था,
उसका ही हाथ झटक दिया,
टूट गया आज एक क्रम,
झुक गए सारे नैन.
न उसको आई कोई शर्म,
क्यों मिला ह्रदय को चैन।

जीवन में धुंध सी छायी है,
सूरज की किरण शरमाई है,
क्या यही वो प्यारा लाल था,
जिसके लिए कंगाल हुए।

पर फिर भी बूढा सोचे है,
कि नाती कभी तो आएगा,
बेटे-बहू को लाएगा,
जो बेटा अपना सबकुछ था,
वो आखिर कबतक रुलाएगा।

न सोचो तुम ज्यादा कंगालों,
सो जाओ आंसू पी पीकर,
इस शाम की कोई सुबह नहीं।

कहीं दूर कोई और दिखा,
कमल खिला पर मसला हुआ,
कोमल कोमल सी पंखुड़ियाँ,
मुरझाई औ सकुचाई हुई।

४ साल की नन्ही उमर में,
उसका था विवाह हुआ,
१२ साल ही हुई न वो,
कि उसका संसार ही उजड़ गया।

समझ ना आया उसको कि,
रंगीन चूड़ी के समय में,
सफ़ेद कफ़न सी साडी दे,
क्यों उसको दुनिया से दूर किया।

सास ससुर के तानों को,
अपनी छाती पर सहती है,
अपनी किस्मत पे विचार कर,
वो रो रो कर यह कहती है।

कि जीवन में हँसी कब आएगी,
कब फिर हँस गा वो पाएगी,
क्या समाज उसको सजने देगा,
क्या उसको भी कोई और मिलेगा।

जो उसके जीवन को रंग देगा,
अपने ही प्रेम के रंगों में,
क्या वो सखियों संग,
मस्ती के रस पी पाएगी,
या ऐसे ही रोते रोते यह,
जिंदगी पूरी गुजर जायेगी।

सूर्य सी वो दमकती थी,
कोमल काया उसकी चमकती थी,
पर आज अंधकार ने लील लिया,
शनि ने उसकी खुशियां को पिया।

कभी मंदिर में घंटा बजा,
पूछे क्यों तूने दी है सजा,
फिर भी एक आस लगाये हुए,
सपनों को है सजाये हुए।

मत सपने सजा इतने बावरी,
इस शाम की कोई सुबह नहीं।

Written by arpitgarg

January 15, 2008 at 11:46 am

%d bloggers like this: