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रात जवां, अभी ढली नहीं

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नश्तर से नैन तेरे चल जाते,
जब तब, घायल कर जाते,
दिल को मेरे हाय, तब तब,
थोडा ठहर, न हो रुखसत,
रात जवां, अभी ढली नहीं|

प्यारी सी हँसी, कोमल पंखुडियां,
होठ तेरे, ललचाते मुझको,
शर्म से लाल गाल तेरे,
कितना रोकूँ, तड़पाते मुझको,
थोडा ठहर, न हो रुखसत,
रात जवां, अभी ढली नहीं|

जब होती है तू उदास, रोता है,
मन मेरा, दुखता अन्दर कुछ मेरे,
मत बहाना कभी तू आंसू,
बहुत कीमती हैं, पूछ मुझसे,
थोडा ठहर, न हो रुखसत,
रात जवां, अभी ढली नहीं|

जुल्फें तेरी, उलझी सुलझी,
हर वक़्त तेरा जूझना उनसे,
पर जैसी भी हैं, भाता है मुझे,
उंगलियाँ जब फसती हैं मेरी,
थोडा ठहर, न हो रुखसत,
रात जवां, अभी ढली नहीं|

बचपना तेरा, इतराना, कट्टी,
हंस पड़ता हूँ, बंद आँखें करके,
मेरे छूने से होती सिरहन तुझे,
तुझे परेशां करता मैं हक़ से हूँ,
थोडा ठहर, न हो रुखसत,
रात जवान, अभी ढली नहीं|

जाना है तो जा, न पीछा
करूंगा मैं, बस निगाहें मेरी,
रुखसत भी हो गयी जो तू,
अहसास को कैसे ले जायेगी,
कितना भी दूर चली जा,
यह रात लौटकर फिर आएगी||

Written by arpitgarg

September 5, 2011 at 12:30 am

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न भूल सका

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पहली बार जो तुझको देखा था,
शरमाई औ सकुचाई सी थी,
कुछ डरी औ कुछ घबराई सी थी,
भूला मैं यह सब कुछ, न भूल सका,
बस तेरे चेहरे पर आती हुई वो लट|

बच रही थी तू मुझसे, कौन है यह?
शायद कुछ ज्यादा ही उतावला था मैं,
तिर्छी निगाहों से वैसे, देख रही थी तू,
भूला मैं यह सब कुछ, न भूल सका,
बस तेरी वो पहली नश्तर सी हँसी|

दो घंटे इंतज़ार करवाया था तूने,
पहली बार मिले थे जब हम तुम,
ऐसी नादान बन रही थी तू, क्या कहता,
भूला मैं यह सब कुछ, न भूल सका,
बस तेरी वो बिंदी जो कुछ टेढ़ी थी|

लम्बी लम्बी बातें तेरी, नहीं ख़त्म,
जो होती थी, पक-पक पक-पक तेरी,
न जाने कब अच्छी लगने लगी थी,
भूला मैं यह सब कुछ, न भूल सका,
बस तेरा वो तकिया-कलाम, हाय|

निगाहों का नशा तेरा, रिश्ता मेरा,
तेरा रूठना, मनाना मेरा, पल छिन,
वो प्यार से तेरा मुझ पे मुक्के बरसना,
भूला मैं यह सब कुछ, न भूल सका,
बस तेरी वो आखों की सरफरोशी|

तेरा मेरे पास आना, दूर जाना, सताना,
रोकना मुझे, प्यार बरसना, कतराना,
तेरे नखरे सहना, तुझे कुछ न कहना,
भूला मैं यह सब कुछ, न भूल सका,
बस वो सारे ख्वाब जो तेरे नाम किये||

Written by arpitgarg

July 11, 2011 at 7:32 pm

Posted in Hindi, Love, Poetry

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An Ode to Girls: Eat Pao not Bhao

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Nahin yaar kal time nahin hai. Some other time”, she would say over the phone. And then giggle away to her friend. “Thoda bhaav khana zaroori hai. Dekh ab kaise peeche peeche aata hai”.

This is the fundamental problems with girls that I never have been comfortable with. This might work with the vella guys who have no work and are just fishing around. With guys who have a professional life and that to a busy one, such tactics are bound to backfire.

There have to be an equal participation in a relationship even to start it off. Working guys have very less time during weekdays and sometimes weekends are busy too. So if you squander away the meeting just for the fun of it, to entice him, to tease him. There might not be a second one. Life moves on and so would he.

If you feel interested in him, there is no point squandering the meeting. If you want to play ‘hard to get’, there are other tactics to apply. Make him wait at the dinner. Guys have no problem in waiting, even for hours. They would never complain; you would find them sipping coffee and happy when you finally arrive. You can take calls a number of times when with him. You can seem disinterested in all the crap that he is shooting off. That’s all fine.

The bottom line is you have to be there. For most of the guys, out of sight is out of mind. The phone calls, the messages, are fine up to some time. After that it gives a feeling that you are too hard to get and if the guy has his work too in mind, he will wither away. Chase how much you might then, it would be of no help.

So if you find a guy for whom you feel positive vibes and butterflies. It’s better not to play too hard. Spend time together. Be there in sight. Coz obviously if you think he is not up to, you can any day break it off.

Written by arpitgarg

March 24, 2011 at 1:01 pm

बदिरा

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केशव के काले कुंज से,
कहा था किशन की कुटीर से,
कब तक करोगे कोप कल्लोल,
काले केश से काले मेघों ने,
कबसे कहीं न काज किया,
कुपित हुए वे कलयुग के कर्मा के कर्मों से,
किसने क्या कर दिया,
कबसे कोख ने फल ना दिया,
काहे का ये कोप भवन,
काहे की ये कठिनाई,
कबसे कह रहे हैं कब आओगे,
काले केशों से कुछ कोमल बरसाओगे,
कोनों तक में कालिख छाई,
ज्ञान का कमरक पियो कृपाई,
कभी कुछ कुबेर के कानों में,
कूकेगी कोयल कूँ कूँ,
कुछ तो कवलित हो कठिनाई,
कह कुछ मत कर्म कर भाई|

Written by arpitgarg

February 15, 2010 at 1:43 pm

इंतज़ार

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इस पत्र के पटल पर दिल की इबारत है लिखी,
इसी को मेरा प्रेम पत्र समझना तुम सखी|

दो-चार बार जो तुम मुझसे मिली,
दिल के आँगन में कली नई खिली।

नोट्स के बहाने हुए पहली मुलाक़ात,
उसी पल हमने अपना दिल दिया तुम्हारे हाथ।

चांदी के सिक्कों सा तेरा तन,
तेरी खिलखिलाहट और यह चंचल मन।

मेरे इशारों को तू न समझ पायी,
या मेरे खुदा तेरी दुहाई।

दिल की बात कहने की कच्ची है उमर,
पर जब भी कहूँगा तुझे ही कहूँगा ऐ जानेजिगर बन मेरी हमसफ़र।

इस दिल के बहकाने पर न चलूँगा मैं,
प्यार की कसौटी पर खुद को परखूँगा मैं।

हाय हैलो का यह प्रेम नहीं है,
इससे आगे भी न बढ़ सका यह भी सही है।

जब मैं बन जाऊंगा इस काबिल,
कि सकूँगा तेरा हाथ थाम, तभी समझूंगा तुझे अपनी रंगीन शाम।

बस तब तक मेरा इंतज़ार करना,
वरना …

Written by arpitgarg

March 28, 2008 at 11:23 am

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इस शाम की सुबह नहीं

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जाने कितने बसंत भये,
कितने जुग पहले बे थे गए,
अब तो अश्रु भी सूख गए,
सुहाने दिन भी अलोप हुए।

मेरे यौवन का रस था पीया,
रब ने दोनों को एक किया,
एक रात का था वो मस्त मिलन,
बिछड़े आज मोसे मोरे सजन।

फ़ौज से संदेसा आया था,
धरती माता ने बुलाया था,
गोरी को बचन दे कि लौटूंगा कल,
सुख चैन ले गया वो हर पल।

माटी के लिए उसने प्राण दिए,
अपने ही आंसू सांवरी ने पिये,
एक घोर अँधेरी रात हुई,
सूरज को जैसे ग्रहण लगा।

हर आहट पर, हर चौखट पर,
बस एक सवाल ही पूछे वो,
कि कौनसी गलती मोसे भई,
जो बिरह में मैं तड़प रही।

एकटकी लगाये चौखट पर देख रही उस पार,
कि आ जाएँ शायद मोरे सरकार,
छोड़ दे आस ओ पगली,
इस शाम की कोई सुबह नहीं।

अरे उधर यह क्या था हुआ,
यह किसको गरम कढ़ाई में डुबोकर के मार दिया,
कौन थी वो जिसके मुहं में,
एक चावल के दाने ने,
विष का सा था उत्पात किया।

हाय रे जन्म दाता,
क्यों तू ये नहीं समझ पाता,
कि देवी का रूप था वो जिसका,
अभी तूने संहार किया।

माँ के गर्भ से पूछे कन्या,
कि क्या मैं जन्म ले पाऊँगी,
गर जन्म भी मुझको दे दिया,
क्या मैं जीवित रह पाऊँगी,
गर जीवित जो मैं रह गयी,
अपने हक़ को क्या पा पाऊँगी।

इन मर्म स्पर्शी सवालों का,
मेरे पास कोई जवाब नहीं,
पर कोई तो हो कि जिसको,
इनके उत्तर मालूम सही।

क्या कन्या होना पाप है,
या यह कोई अभिशाप है,
अरे यही तो जननी है,
यह जीवन देने वाली है,
इसी के रूप में सीता है,
इसी के रूप में काली है।

ओ नीचे करम करने वालों,
मानवता को डसने वालों,
क्या कभी तुमने यह सोचा है,
जिस माँ ने तुमको जन्म दिया,
उस माँ में भी तो सीता है।

वह माँ भी तो एक कन्या थी,
गर उसका जन्म नहीं होता,
तो तेरी क्या होती पहचान,
मत दिखा तू अपनी झूठी शान।

उत्तराधिकारी के लोभ में,
मत हो जा तू इतना अँधा,
छोड़ दे ये गोरखधंधा,
लेने दे मुझको भी सांस,
बस यही लगाये है वो आस,
आस छोड़ दे ओ नादान,
इस शाम की कोई सुबह नहीं।

कौन हैं वो बुड्ढे बुढ़िया,
जो चौखट पर ही बैठे हैं,
जिस तक़दीर पर था इनको गर्व,
उसी तक़दीर से चैंटे हैं।

कोई नहीं है इनके पास,
जिंदा हैं बस ले लेकर सांस,
बुढ़िया चूल्हा जलाती है,
बुड्ढा खांसे जाता है।

जिसे लाड प्यार से बड़ा किया,
जिसपर जीवन न्योछार दिया,
वो लाल ही अपना नहीं हुआ,
तो परायों की क्या बात करें।

शादी नहीं वो बर्बादी लगी,
जिस माँ से पहले कोई नहीं,
वो बीवी के बाद आने लगी।

माँ बाप का प्यार न रोक सका,
उसको खर्चे बढ़ते दिखने लगे,
बुड्ढे के पान अखरने लगे,
कलह के फल दिखे पके पके।

जिसकी लोरी में सोया था,
उस माँ की खांसी खटकती है,
जिसके कंधो पर बैठा था,
उसका बोझ आज भारी है।

जिसकी ऊँगली से चला था,
उसका ही हाथ झटक दिया,
टूट गया आज एक क्रम,
झुक गए सारे नैन.
न उसको आई कोई शर्म,
क्यों मिला ह्रदय को चैन।

जीवन में धुंध सी छायी है,
सूरज की किरण शरमाई है,
क्या यही वो प्यारा लाल था,
जिसके लिए कंगाल हुए।

पर फिर भी बूढा सोचे है,
कि नाती कभी तो आएगा,
बेटे-बहू को लाएगा,
जो बेटा अपना सबकुछ था,
वो आखिर कबतक रुलाएगा।

न सोचो तुम ज्यादा कंगालों,
सो जाओ आंसू पी पीकर,
इस शाम की कोई सुबह नहीं।

कहीं दूर कोई और दिखा,
कमल खिला पर मसला हुआ,
कोमल कोमल सी पंखुड़ियाँ,
मुरझाई औ सकुचाई हुई।

४ साल की नन्ही उमर में,
उसका था विवाह हुआ,
१२ साल ही हुई न वो,
कि उसका संसार ही उजड़ गया।

समझ ना आया उसको कि,
रंगीन चूड़ी के समय में,
सफ़ेद कफ़न सी साडी दे,
क्यों उसको दुनिया से दूर किया।

सास ससुर के तानों को,
अपनी छाती पर सहती है,
अपनी किस्मत पे विचार कर,
वो रो रो कर यह कहती है।

कि जीवन में हँसी कब आएगी,
कब फिर हँस गा वो पाएगी,
क्या समाज उसको सजने देगा,
क्या उसको भी कोई और मिलेगा।

जो उसके जीवन को रंग देगा,
अपने ही प्रेम के रंगों में,
क्या वो सखियों संग,
मस्ती के रस पी पाएगी,
या ऐसे ही रोते रोते यह,
जिंदगी पूरी गुजर जायेगी।

सूर्य सी वो दमकती थी,
कोमल काया उसकी चमकती थी,
पर आज अंधकार ने लील लिया,
शनि ने उसकी खुशियां को पिया।

कभी मंदिर में घंटा बजा,
पूछे क्यों तूने दी है सजा,
फिर भी एक आस लगाये हुए,
सपनों को है सजाये हुए।

मत सपने सजा इतने बावरी,
इस शाम की कोई सुबह नहीं।

Written by arpitgarg

January 15, 2008 at 11:46 am

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